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पु꣣नानः꣡ सो꣢म꣣ धा꣡र꣢या꣣पो꣡ वसा꣢꣯नो अर्षसि । आ꣡ र꣢त्न꣣धा꣡ योनि꣢꣯मृ꣣त꣡स्य꣢ सीद꣣स्युत्सो꣢ दे꣣वो꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥५११॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पुनानः सोम धारयापो वसानो अर्षसि । आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देवो हिरण्ययः ॥५११॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु꣣नानः꣢ । सो꣣म । धा꣡र꣢꣯या । अ꣣पः꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । अ꣣र्षसि । आ꣢ । र꣣त्नधाः꣢ । र꣣त्न । धाः꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सी꣣दसि । उ꣡त्सः꣢꣯ । उत् । सः꣣ । देवः꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥५११॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 511 | (कौथोम) 6 » 1 » 3 » 1 | (रानायाणीय) 5 » 5 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) पवित्र रस के भण्डार परमात्मन् ! आप (धारया) अपनी आनन्द-धारा से (पुनानः) पवित्रता लाते हुए, (अपः) कर्म को (वसानः) आच्छादित अर्थात् प्रभावित करते हुए (अर्षसि) उपासकों के हृदय में व्याप्त होते हो। (रत्नधाः) रमणीय गुणरूप रत्नों के प्रदाता आप (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) गृहरूप जीवात्मा को (आ सीदसि) प्राप्त होते हो। आप (उत्सः) आनन्द के झरने, (देवः) विद्या, सुख आदि के प्रदाता और (हिरण्ययः) ज्योतिर्मय तथा यशोमय हो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

पवित्र परमेश्वर अपने उपासकों के हृदयों और कर्मों को पवित्र करता हुआ, उनके आत्मा में निवास करता हुआ, उन्हें आनन्द के झरने में स्नान कराता हुआ, ज्योति से प्रदीप्त करता हुआ यशस्वी बनाता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो गुणकर्माणि वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) पवित्ररसागार परमात्मन् ! त्वम् (धारया) स्वकीयया आनन्दधारया (पुनानः) पवित्रतामापादयन्, (अपः) कर्म (वसानः) आच्छादयन्, प्रभावयन्नित्यर्थः (अर्षसि) उपासकानां हृदयं व्याप्नोषि। (रत्नधाः) रमणीयानां गुणानां आधाता त्वम् (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) गृहम्, जीवात्मानमित्यर्थः। योनिरिति गृहनाम। निघं० ३।४। (आ सीदसि) प्राप्नोषि। त्वम् (उत्सः) आनन्दनिर्झरः, (देवः) विद्यासुखादीनां दाता, (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः यशोमयश्च, विद्यसे इति शेषः। ज्योतिर्वै हिरण्यम्। तां० ब्रा० ६।६।१०। यशो वै हिरण्यम्। ऐ० ब्रा० ७।१८ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

पवित्रः परमेश्वरः स्वोपासकानां हृदयानि कर्माणि च पावयन् तेषामात्मनि निवसंस्तानानन्दनिर्झरे स्नपयन् ज्योतिषा दीपयन् यशस्विनः करोति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०७।४ ‘देवो’ इत्यत्र ‘देव’ इति पाठः। साम० ६७५।